न्याय करने में परमेश्वर के कार्य की मंशा नहीं
है एक या दो शब्दों में
इंसान के पूरे स्वभाव को स्पष्ट करना,
पर धीरे-धीरे इंसान को प्रकट करना, निपटना,
और उसकी काँट-छाँट करना।
बदला ना जा सकता ऐसा व्यवहार आम शब्दों के लिए,
पर उस सच्चाई के लिए, जो इंसान की सीमा के है पार।
इसी कार्य को न्याय मानते हैं,
यही वो न्याय जिसकी बदौलत इंसान मानते हैं दिल में,
ज़ुबां पर, भीतर, बाहर आज्ञा परमेश्वर की,
और जान पाते हैं सच में उसे।
न्याय के कार्य से ही जान पाते हैं
मनुष्य परमेश्वर का असली चेहरा
और अपने विद्रोह की सच्चाई।
सिखाता है यही परमेश्वर के कार्य का इरादा और मंशा
सिखाता है यही उन राज़ को जो इंसान नहीं समझता।
इसकी मदद से जानता वो अपने दूषण और बदसूरती को।
इसी कार्य को न्याय मानते हैं,
यही वो न्याय जिसकी बदौलत इंसान मानते हैं दिल में,
ज़ुबां पर, भीतर, बाहर आज्ञा परमेश्वर की,
और जान पाते हैं सच में उसे।
न्याय के कार्य के ज़रिए ही प्राप्त होता है
परमेश्वर के कार्य का प्रभाव।
दरअसल सार है ऐसे कामों का,
प्रकट करना सच्चाई, पथ, और जीवन ईश्वर का,
सामने उनके जो रखते हैं आस्था उस पर।
इसी कार्य को न्याय मानते हैं,
यही वो न्याय जिसकी बदौलत इंसान मानते हैं दिल में,
ज़ुबां पर, भीतर, बाहर आज्ञा परमेश्वर की,
और जान पाते हैं सच में उसे।
"वचन देह में प्रकट होता है" से